दलित उत्पीड़न को मिल रहा है दलित सत्ता का संरक्षण
मगरदहा में आदिवासी दलितों की आत्मा के साथ साथ उनकी झोपड़ियों को रौंदे जाने के ४८ घंटों बाद जहाँ पूरा सोनभद्र सुलग रहा है वहीँ वनकर्मियों की बर्बरता के नए किस्से सामने आ रहे हैं। मगरदहा की ही लकिता अगरिया पत्नी जयश्री अगरिया गुरुवार शाम कोन के घने जंगलों में बेहोश पड़ी मिली। उसे इतना पीटा गया था कि उसका गर्भपात हो गया। उधर ओबरा वन प्रभाग द्वारा आदिवासियों के खिलाफ कुछ नए मुक़दमे दर्ज कराये जाने कि खबर मिली है। सर्वाधिक बैचैनी उन चंद आदिवसियों की गुमशुदगी से जुडी हैजो वनविभाग के हमले के बाद से ही गायब हैं। आदिवासी अपने परिजनों की तलाश में दर दर भटक रहे हैं वहीँ वन विभाग और जिला प्रशासन उन्हें अपराधी घोषित करने पर तुला हुआ है।
सोनभद्र में वन विभाग द्वारा आदिवासियों के शोषण उत्पीडन का ये कोई अकेला मामला नहीं है। टैक्स वसूलने और मुकदमे लड़ाने की मशीन बन चुका वन विभाग शोषण का नया औजार बन चुका है अभाव, उपेक्षा और सत्ता की अतिवादिता की बानगी बन चुके उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जनपद में। दलित उत्पीडन का अब तक का सबसे खौफनाक अध्याय लिखा जा रहा है। अभी दो वर्ष पूर्व ही अपनी जमीन पर हकदारी की मांग कर रही हरना कछार की दलित आदिवासी स्त्रियों की भी पुलिस और वन विभाग के लोगों ने पहले तो नंगा करके बेरहमी से पिटाई की। फिर उनके ऊपर फर्जी मुकदमा ठोंक दिया। शर्मनाक ये कि इस पूरे मामले की जानकारी उत्तर प्रदेश के गृह सचिव ,मुख्य सचिव के साथ साथ खुद मुख्यमंत्री को थी, भयावह ये कि उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती जनपदों में इन सभी घटनाओं का इस्तेमाल माओवादी संगठन माइंड वाशिंग के लिए कर रहे हैं। एक तरफ जहाँ जंगल विभाग सुरक्षित वन क्षेत्रों में भारी वसूली करके अवैध खनन करा रहा है तो वहीँ दूसरी तरफ आदिवासियों के खिलाफ प्रायोजित कार्यवाही की जा रही है। क्योंकि सोनभद्र का आदिवासी इस पूरे गोरखधंधे की आड़ में आ रहा है। कैमूर क्षेत्र महिला, मजदूर किसान संघर्ष समिति के सदस्य महिलाओं ने बताया 'साहब अब भी वो जब चाहते हैं हमें जेल में बंद कर देते हैं ,हमसे बार बार घर गाँव छोड़ कर भाग जाने को कहा जाता है। पुलिसवालों ने कोटेदारों को कह दिया है की इन्हें राशन मत दो। अगडी बिरादरी वालों से वे कहते हैं इन्हें दाना पानी मत दो।
अगर उत्तर प्रदेश में दलित सत्ता का सच देखना हो तो सोनभद्र आइये .यहाँ न सिर्फ आपको त्राहि त्राहि करता मानवाधिकार मिलेगा बल्कि हदें तोड़ रहा पुलिसिया दमन चक्र भी देखने को मिलेगा। मगरदहा में घटी घटना के लगभग एक डेढ़ साल पूर्व २४ सितम्बर २००८ को भी कुछ ऐसा ही हुआ था। जब आदिवासी स्त्रियों को सरेआम नंगा करके पीटा गया था लेकिन हकीकत के सामने आने में पूरे एक साल लग गए। भुक्तभोगी महिलाओं ने बताया कि २४ सितम्बर को दिन दहाड़े लगभग ३०० लोगों की भीड़ ने जिनमे पुलिस, वन विभाग के लोगों के अलावा अगडी जातियों के वो लोग भी शामिल थे जिन्होंने मनमाने ढंग से आदिवसियों की भूमि पर कब्जा कर रखा था। गाँव पर हमला बोल दिया था। पुलिस वालों ने पहले गालियाँ बकते हुए हम सबको घर से बाहर निकला फिर हमारे पतियों को बन्दूक के जोर से धमकाते हुए पीछे धकेल दिया। महिलाओं का कहना था कि उन लोगों ने हमारे घरों में पहले आग लगा दी और उसके बाद एक के बाद एक करके हमें नंगा करके लाठियों और बेल्ट से पीटा। इस दौरान आदिवासियों के कपडे, साइकिल और बचे खुचे पैसे भी साथ आये लोगों के द्वारा लूट लिया गया। इनका कसूर सिर्फ इतना था कि वो वनाधिकार कानून के तहत अपनी उस जमीन पर कब्जे को लेना चाहते थे ,जिसे वन विभाग ने जबरन अपने कब्जे में ले रखा था, इस बर्बर कृत्य में एक ३ साल की लड़की को भी गहरी चोट आई। हरना कछार में पुलिस और वन विभाग के लोग दबाव बनाकर आदिवासियों से वो १५० एकड़ खाली कराना चाहते थे, जिसे आदिवासी अपनी पुश्तैनी जमीन कह रहे थे, घटना से पहले जमीन खाली करने आई टीम के एक जवान ने एक आदिवासी महिला की साडी खींचकर उसे नंगा कर दिया था इससे खार खायी महिलाओं ने विरोध स्वरुप अर्धनग्न होकर अपने कपडे पुलिस वालों के मुँह पर फेंक दिए। पुलिस द्वारा हरना कछार में जिन महिलाओं को उस घटना में नग्न करके पीटा गया था, उनमे महामति देवी, तैज्मानी देवी, जसो, बिस्वा, बच्चिया, फूलमती, इन्दरी, कल्पतिया, कलावती, फूलमती, भुक्ली, विद्यावती, आशा देवी इत्यादि शामिल थी ,आज भी ये सब महिलायें उस शर्मनाक घटना से उबार नहीं पायीं हैं। इनमे से कई ने आत्महत्या की भी कोशिशें की हैं। सोनभद्र में आदिवासी वनाधिकार कानून बनने के लगभग ४ वर्ष बाद भी एक इंच जमीन पर काबिज नहीं हो पाए हैं ,
जो जमीन सरकारी है ,वो जमीन हमारी है। सत्ता के सरपरस्ती में घर जंगल से उजाडे जाने के बाद सोनभद्र के आदिवासियों ने थक हार कर ये नारा अपना लिया है। पुलिस और वन विभाग के फर्जी मुकदमों से तंग आकर भारी संख्या में आदिवासी गिरिजन नक्सलवाद की भट्टी में खुद को झोंकने में गुरेज नहीं कर रहे हैं। ये आश्चर्यजनक किन्तु सच है की आज भी वन विभाग हर माह सैकडों की संख्या में फर्जी मुक़दमे दर्ज कर रहा है। जानकारी मिली है की अकेले ओबरा वन प्रभाग ने पछले ६ माह में लगभग ६०० आदिवासियों के खिलाफ केस काटा है ,जिन आदिवासी गिरिजनों के पास खाने को दाना नहीं है वो मुकदमा लड़े तो लड़े कैसे? जनपद में हर जगह रोज- बरोज मानवाधिकारों की खुलेआम हत्या की जा रही है। भी हाल में ही अगोरी में एक साथ दो दर्जन हरिजनों ,विधवाओं और बुजुर्गों के खिलाफ फर्जी मुकदमा ठोंक दिया गया ऐसा कोई दिन नहीं बीतता जब वन दरोगा फर्जी मुक़दमे न दायर करता हो ,ऐसा सिर्फ इसलिए होता है क्यूंकि जनपद में सत्ता की साझेदारी में चला रहा भ्रष्टाचार का कार्यक्रम बंद न हो। भूमि हकदारी को लेकर किये जा रहे आन्दोलनों को कुचलने की राज्य सरकार हर संभव कोशिश कर रही हैं, नतीजा ये है कि हजारों एकड़ भूमि को लेकर वर्ग संघर्ष के हालात बने हुए हैं। आदिवासियों की इन दुश्वारियों को अपने पक्ष में भाजाने की माओवादी हर संभव कोशिश कर रहे हैं पुलिस का अत्याचार चरम सीमा पर है। दलितों की सरकार अपनी आँखों के सामने ,दलितों के आत्मसम्मान, दलितों की अस्मिता और उनकी आखिरी उम्मीद को तार तार होते देख रही है।